संघ गीत
है अमित सामर्थ्य मुझमें याचना मैं क्यो करुँगा?
रुद्र हूँ विष छोड़ मधु की कामना मैं क्यों करुँगा?
इन्द्र को निज अस्थि पंजर जब कि मैंने दे दिया था।
घोर विष का पात्र उस दिन एक क्षण में ले लिया था।
दे चुका जब प्राण कितनी बार जग का त्राण करने।
फिर भला विध्वंस की कटु कल्पना मैं क्यों करुँगा ?॥१॥
फूँक दी निज देह भी जब विश्व का कल्याण करने।
झोंक डाला आज भी सर्वस्व युग निर्माण करने।
जगमगा दी झोपड़ी के दीप से अट्टालिकाएँ।
फिर वही दीपक तिमिर की साधना मै क्यों करुँगा ?॥२॥
विश्व के पीड़ित मनुज को जब खुला है द्वार मेरा।
दूध साँपों को पिलाता स्नेहमय आगार मेरा।
जीतकर भी शत्रु को जब मैं दया का दान देता।
देश में ही द्वेष की फिर भावना मैं क्यों भरुँगा?॥३॥
मार दी ठोकर विभव को बन गया क्षण में भिखारी।
किन्तु फिर भी जल रही क्यों द्वेष से आँखे तुम्हारी।
आज मानव के ह्रदय पर राज्य जब मैं कर रहा हूँ।
पिर क्षणिक साम्राज्य की भी कामना मैं क्यों करुँगा?
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भावार्थ:- उपरोक्त पंक्ति में , मैं से भारत को निरूपित किया गया जिसमें बताया गया है कि :-
मुझमे इतना सामर्थ्य है की याचना करने की जरूरत नही है। मैं रुद्र हूँ जिसने अमृत को छोड़कर विष धारण किया था। तो अमृत की कामना क्यों करूँगा।
मैं भारत ही हू जो समय आने पर इंद्र को अपना अस्थि पंजर तक दान कर दिया था।
जग के कल्याण के लिए कितनी बार अपनी प्राण गंवा चुका हूँ। फिर मैं विध्वंस की कामना क्यों करूँगा।
पूरे गीत में अनेकानेक महापुरुषों द्वारा जग कल्याण के कार्य किये गए हैं। फिर भी हमे सबकुछ साबित करने की आवश्यकता क्यों है।
संक्षेप में वर्णन यही है कि भारत ने समय समय पर ऐसे महापुरुषों को जन्म दिया है जो न केवल आने देश का कल्याण चाहने वाले हो बल्कि पूरे विश्व का कल्याण करने के लिए जाना गया है।लेकिन बार बार उसकी परीक्षाएं ली जाती है ।
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