संघ गीत
दिव्य ध्येय की ओर तपस्वी,
जीवन भर अविचल चलता है।
सज धज कर आवे आकर्षण,
पग पग पर झूमते प्रलोभन।
होकर सबसे विमुख बटोही,
पथ पर संभल संभल चलता है।
अमर तत्व की अमिट साधना,
प्राणों में उत्सर्ग कामना ।
जीवन का शाश्वत व्रत लेकर,
साधक हँस कण कण गलता है।
सफल विफल और आस निराशा,
इसकी और कहाँ जिज्ञासा।
बीहड़ता में राह बनाता,
राही मचल-मचल चलता है।
पतझड़ के झंझावातों में,
जग के घातों प्रतिघातों में ।
सुरभि लुटाता सुमन सिहरता,
निर्जनता में भी खिलता है।
दिव्य ध्येय की ओर तपस्वी,
जीवन भर अविचल चलता है।
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